भोजपुरी सिर्फ अश्लिलता का पैमाना नही है, हमारी माँ भी है..

 

मुकुंद वर्मा

फ़िल्में तो आप जरुर देखते होंगे. जी मैं भी देखता हूँ. भला ऐसा कौन होगा जो हमारे देश में सिनेमा नही देखता होगा. हिन्दुस्तान में सिनेमा सिर्फ एक एंटरटेनमेंट का साधन नही है, बल्कि हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग भी है. मैं हिन्दी और अंग्रेजी की फिल्में तो देखता ही हूँ, साथ-साथ कभी-कभी पंजाबी, मराठी, तेलगु, तमिल और मलयाली फिल्में भी नहीं छोड़ता. लेकिन उन इन सब की तुलना में अगर सबसे कम फिल्में मैंने देखी है, तो वो है अपनी भाषा की फिल्में, भोजपुरी फिल्में.

बिहार से आता हूँ, तो मेरी पहचान देश के लोगों के लिए एक भोजपुरी बोलने या समझने वाले इंसान के तौर पर है. लेकिन समय का खेल देख लीजिये, की एक भोजपुरी मिट्टी से आनेवाला इन्सान न सिर्फ भोजपुरी सिनेमा को नीची नज़र से देखता है, बल्कि जैसे ही भोजपुरी सिनेमा या गानों की बात कहीं आती है, तो वो दायें-बाएं देखने लगता है और इंतज़ार करने लगता है की कब ये बात ख़त्म हो, नही तो शायद कहीं इसके कारण एक बार और उपहास का केंद्र न बन जाना पड़े. आपको मेरी ये बात कडवी लग सकती है, और लगनी भी चाहिए, क्यूंकि यही सच्चाई है. भोजपुरी गानों और फिल्मों ने इसके निर्माताओं और निर्देशकों की जेब जरुर भरी है, लेकिन बिहारियों और भोजपुरी बोलने वालों को दुनिया की नज़र में गिराया भी है.

कहीं कोई ऐसा भोजपुरी गाना नही है जिसको अपने दूसरे राज्यों के दोस्तों के साथ बैठकर मै सुन सकूँ और उन्हें सुना सकूँ, और गर्व से बता सकूँ की ये सिर्फ गाना नही है, बल्कि मेरे मिट्टी का संगीत है. कोई ऐसी भोजपुरी मूवी नही है, जिसे दिखाकर मैं लोगों से कह सकूँ, की ये है मेरी संस्कृति, ये है मेरे संस्कार. जहाँ केरला और महाराष्ट्र में बन रही फिल्में अपनी कहानी, संगीत और निर्देशन के लिए नेशनल अवार्ड जीत रहे होते हैं, वहीँ भोजपुरी फिल्में अपनी कहानियों में स्त्रियों के नंगे बदन वाली ज्यादा से ज्यादा सीन डाल रहा होता है. अब आप मुझे 2-3 सिनेमा के नाम न गिनाना शुरु कर दीजियेगा. मैंने भी नदिया के पार और गंगा देखी है. सिर्फ 2 फिल्में गिना देने से इंडस्ट्री अच्छी नही हो जाएगी. जब गुड्डू रंगीला जैसे लोगों के हमरा हउ चाही गाने बजते हैं न, तो एक लड़का होने के बावजूद, शरम के मारे नज़रें बचाकर गली से जल्दी से जल्दी निकल जाना चाहता हूँ. यही हाल लगभग भोजपुरी फिल्मों का है. चाहे स्टोरी कुछ भी हो, जब तक औरतों की छाती नही दिखाते, ये फिल्म बनाने वाले बाज नही आते.

हमारे यहाँ टैलेंट की कमी नही है, कमी है तो विल पॉवर की. हमारे ही प्रकाश झा ने अपने मनोज बाजपाई को लेकर कितनी ही धाँसू-धाँसू फिल्में बनायीं है, लेकिन अफ़सोस है की उन्हें भी अब तक सिर्फ बिहार के डॉन और माफिया जैसे लोग ही दिखाई दिए हैं. काश कुछ ऐसी फिल्में बना जाते, जो भोजपुरी इंडस्ट्री में मील का पत्थर साबित होते. कम से कम उनके देखा-देखी ही सही, और भी लोग उनके रस्ते चलने की कोशिश करते, लेकिन अफ़सोस अब तक ये हो नही सका है. आखिर कब होगा ऐसा जब भोजपुरी को मान-सम्मान मिलेगा, भोजपुरी लोगों को गोली-बन्दूक और अश्लील फिल्मों के लिए नही बल्कि बेहतरीन फिल्मों के लिए जाना जायेगा, जब नेशनल अवार्ड और बॉलीवुड के कार्यक्रमों में भोजपुरी गाने भी बजेंगे और भोजपुरी को महज एक फनी लैंग्वेज के तौर पर पीके जैसी फिल्मों में इस्तेमाल नही किया जायेगा. कोई सुन रहा है? क्या कोई जवाब देगा या मेरी आवाज उन फिल्मकारों तक पहुँचा देगा? कोई गुड्डू रंगीला को बता पायेगा की भोजपुरी सिर्फ अश्लिलता का पैमाना नही है, हमारी माँ भी है? कोई है जो भिखारी ठाकुर के बिदेशिया और बिरहा-बहार की धरोहर की लाज रखेगा? अरे कोई सुन रहा है क्या?

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