वैसी कविता जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे. ऐसा बहुत ही कम हिन्दी कविताओं में देखने को मिलता है. कुछ कवि जनकवि होते हैं तो कुछ को राष्ट्रकवि का दर्जा मिलता है मगर एक कवि राष्ट्रकवि भी हो और जनकवि, यह इज्जत बहुत ही कम कवियों को नसीब हो पाती है. रामधारी सिंह दिनकर ऐसे ही कवियों में से एक हैं जिनकी कविताएं किसी अनपढ़ किसान को भी उतना ही पसंद है जितना कि उन पर रिसर्च करने वाले स्कॉलर को.
दिनकर की कविता इस समय भी उतनी ही प्रासंगिक मालूम होती है, जितनी कि उस दौर में जब वह लिखी गई थी. समय भले ही बदल हो लेकिन परिस्थितियां अभी भी वैसी ही हैं.
आजादी से पहले और उसके बाद सालों तक जिनकी कविता गरीबों-आमजनों की आवाज बनकर गूंजती रही. वही राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के मौजूदा बेगुसराय (तब मुंगेर) जिले के सिमरिया घाट में हुआ था.
वर्ष 1935 में रचित रेणुका और वर्ष 1938 में हुंकार जैसी दिनकर की रचनाओं में वो ताकत थी जिससे अंग्रेजी हुकूमत भी घबराने लगी थी तभी तो अंग्रेजी सरकार दिनकर के खिलाफ फाइलें तैयार करने लगी थी, बात-बात पर उन्हें धमकियां दी जाती थी यहां तक की चार वर्ष में उनका बाइस बार तबादला भी किया गया था.
उनके कविता की पक्तियों ने देशवासियों में राष्ट्रभक्ति का एक नया रक्त संचार किया और दिनकर बन गए राष्ट्रकवि।
1947 में देश आजाद हुआ तो रामधारी सिंह दिनकर बिहार विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष बनाए गए. 1952 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने दिनकर को राज्यसभा सदस्य बनाया.
1965 से 1971 तक वो भारत सरकार के हिंदी सलाहकार रहे. हिंदी भाषा की सेवा के लिए उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया .
उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय को साहित्य अकादमी पुरस्कार और उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला. महाभारत पर आधारित उनके प्रबंध काव्य कुरुक्षेत्र की गिनती दुनिया के सौ सर्वश्रेष्ठ काव्यों में होती है.
कमजोरों के हक में खड़े होकर व्यवस्था की खिलाफ आवाज उठाने के इस तेवर ने दिनकर की कविताओं को जनता की जुबां पर ला दिया.
” आजादी तो मिल गयी, मगर यह गौरव कँहा जुगाएगा
मरभुखे! इसे घबराहट में तू बेच तो न खायेगा “
तुम नगरों के लाल, अमीरों के पुतले
क्यों व्यथा भाग्यहीनों की मन में लाओगे ?
जलता हो सारा देश, किन्तु होकर अधीर तुम दौड़-दौड़कर
क्यों यह आग बुझाओगे
रामधारी सिंह दिनकर की पक्तियों में वो ताकत है जो किसी क्रांति के आगाज के लिए काफी है, तभी तो 70 के दशक में सम्पूर्ण क्रांति के दौर में दिल्ली के रमलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह की शंखनाद दिनकर की इन पंक्तियों ” सिंहासन खाली करो की जनता आती है “ के उद्घोष के साथ किया था।
पत्थर सी हो मांसपेशियां
लौहदंड भुजबल अभय
नस-नस में हो अगर लहर आग की
तभी जवानी जाती जय
24 अप्रैल 1974 को रामधारी सिंह दिनकर जी अपने आपको अपनी कविताओं में जीवित रखकर सदैव के लिए अमर हो गए।