अपनी कमजोरियों को ताकत बनाकर बिहार की बेटी स्वाति ने लिखी इंग्लिश नॉबेल

अक्सर टूटे हुए लोग टूटते चले जाते हैं, अपनी कमजोरियों से कमजोर होकर लोग आगे बढ़ना छोड़ देते हैं। अगर हम अपनी परेशानियों को अपनी ताकत बनाकर आगे बढ़ने की कोशिश करें तो सफलता ऐसी मिलती है की खुद के साथ ही दूसरों के लिए भी हम प्रेरणा बन जाते हैं। कुछ ऐसी कहानी बिहार की बेटी स्वाति कुमारी की है जो अपने परेशानियोंपरेशानियों से परेशान जरूर होती है लेकिन उसे खुदपर हावी होने के बजाय उसे अपना ताकत के रूप में इस्तेमाल करती है।

स्वाति कुमारी (Photo from Swati’s Fb page)

स्वाति कानपूर में पली-बढ़ी, वहीं से अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी की। स्वाति के माँ-पिता भी चाहते थे की स्वाति बड़ी होकर इंजीनियर या डॉक्टर  बने पर वो बचपन से ही लिखने की शौक़ीन थी,गणित में रूचि नही होने के कारण मेडिकल की तैयारी की तो जरूर पर उसमें भी दिल नही लगा। 2007 में स्वाति पटना आ गयी और मगध विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन के बाद नेशनल स्कुल ऑफ़ बिजनेस से एमबीए की इसी बीच 2013 में स्वाति को एक एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत फ़्रांस जाने का अवसर प्राप्त हुआ,इसी दौरान ऑक्टूबर में स्वाति की मां का देहांत हो गया. इस घटना ने स्वाति को पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया। पूरी तरह से निराश  हो चुकी स्वाति अपने सभी कामों को छोड़कर पटना आकर रहने लगी और यहीं की होकर रह गयी।

स्वाति ने अपनी मां की कही बातों को ही अपने जीने का सहारा बनाई और अपनी स्थिति और माँ की बातों को लिखते चली गयी और वर्ष 2014 में ये एक नॉबेल का रूप ले लिए, 7-8 महीने बाद एक अच्छे पकाशक   के सहयोग्य से स्वाति की पहली नोबेल ‘ विदआउट ए गुड़ बाय ‘ पिछले वर्ष नवंबर 2015 में मार्केट में आयी। इस नॉबेल को लोगों ने खूब पसंद किया, पटना बुक फेयर में भी इस किताब की काफी चर्चा हुई।

इस नॉबेल की डिमांड सिर्फ पटना में ही नही बल्कि देश के कोने-कोने में होने लगी यहां तक की विदेशों में भी यह नॉबेल खूब पसंद किया गया. सोशल नेटवर्किंग साईट के जरिये लगभग 10 हजार से भी ऊपर लोगो ने इस किताब की सराहना की इससे स्वाति को नया ताकत मिला।

विदआउट ए गुड़ बाय

–  विदआउट ए गुड़ बाय दो औरतों की कहानी है। इसमें से एक ऐसी है जो आज की पीढ़ी की जागरुक लड़की है। – वहीं दूसरी उसी जेनरेशन की लड़की की मां की कहानी है, जो आज भी पिता पर निर्भर है। – नॉवेल के बारे में स्वाति का कहना है कि किस तरह एक मां खुद के जिंदगी से लाचार होकर बेटी को समाज की सिख देती है। – अपने लिए रास्ता खुद चुनने का अधिकार बताती है। औरत के जिंदगी के दो अलग-अलग पहलुओं को इस नॉवेल के माध्यम से रखने की कोशिश की गई है। स्वाति आपन बिहार को बताई की ” मैं शुरू से भले ही बिहार से बाहर रही, लेकिन जँहा भी रही खुद को गर्व से बिहारी ही कहती, फ़्रांस में  मेरी पहचान एक बिहारी लड़की के ही रूप में रही 

स्वाति बताती है की समाज में आज भी स्त्रियों को कहीं न कहीं घर के चारदीवारी में ही कैद रखने की कोशिश की जाती है, आज भी लड़कियां रूढ़िवादी समाज का शिकार होती है और इस कारण स्त्रियाँ आज भी पीछे रह जाती है, वो समाज के हर क्षेत्र के लोगों को जागृत करने के लिए लिखते रहेगी। स्वाति फ़िलहाल पटना के मसहूर फ़ोटोग्राफर सौरव अनुराज के साथ एक फ़ोटो-मैगज़ीन पर काम रही है।

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